बचपन में मुझे याद है मैं बेहद डरपोंक और दब्बू थी क्यों पता नहीं लेकिन दूसरों की गलतियों पर मैं ही डांट खाती थी। हिम्मती नहीं थी या दूसरों को बचाने के चक्कर में फंस जाती थी, याद नहीं । एक दिन जब मैं इसी तरह पकड़ी गयी तब हमारे जीवविज्ञान के शिक्षक ने बिना मेरी सुने सजा दी और चले गए। जब मैंने कहा कि मैंने गलती नहीं की तब उन्होंने पूछा ,"क्या मेरी आंखें देखती नहीं मैंने तुम्हे देखा और तुम नकार रही हो हद होती है " शाम को जब वो बाजू वाली कक्षा में आये तब मुझसे कहा , क्षमा मांगने में इतना क्यों हिचकती हो। तब भी मैंने दोहराया कि वाकई गलती मेरी नहीं थी। उन्होंने गुस्से में कक्षा में आकर पूछा कि गलती किसने की और जब पता चला कि उन्होंने जब दस्ती मुझे सजा तो उनसे कुछ कहा नहीं गया क्योंकि गलती उन्होंने की थी शर्मिन्दा भी वो ही थे। जहां बोलना चाहिए यदि वहां भी ओठों पर चुप्पी रहे तो कसूरवार कौन कहा जाएगा ? बचपन में जब मैं छोटी थी लगभग 40 सालों के पहले ज्यादातर बच्चों की बातों को महत्त्व नहीं दिया जाता था , परिवार भी बड़े थे और पारिवारिक स्थितियां भी सहज नहीं ह...
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