मौत से लड़ाई

आज लगभग 18  सालों के बाद भी याद आने से आंखें  नम हो जातीं हैं , दुनिया में इंसानियत लगभग ख़त्म हो
चुकी है।  मेरे छोटे बेटे के प्रसव के लिए जब घर से अस्पताल निकली तब मुझे ज़रा सी भी उम्मीद नहीं थी
लेकिन मेरे कमजोर स्वास्थ्य के बावजूद मैंने 12 घंटों के बाद पूरी तरह स्वस्थ राकेश को जन्म दिया। तीन
दिनों के बाद उसकी आंखें थोड़ी पीली दिखने से मैंने डॉक्टर से देखने का अनुरोध किया जिस पर उन्होंने ध्यान
ही नहीं दिया लेकिन पांच दिनों के बाद बच्चे को बचा सकने का आश्वासन भी देने में असमर्थता जाहिर की।
मेरा डरना स्वाभाविक था लेकिन हिम्मत जुटाकर  मैंने जूझने का फैसला किया और दिन रात जागकर बच्चे
पर पूरी नज़र रखी ताकि सचमुच ही मैं मेरे बेटे को न खो बैठूं। थोड़ी सी असावधानी भी मेरे नवजात के
लिए जानलेवा साबित हो सकती थी इसलिए रात और दिन बिना सोये रखवाली करना मेरा डर सा बन चुका
था।

सिवाय डर कुछ भी मन में था ही नहीं। हर नज़र यही पूछती थी कि कब तक ये लड़ाई चलेगी मौत से ? मैं
लेकिन सिर्फ भगवान से जान की भीख  मांगती रही और मेरी आशा निराशा में नहीं बदली , मेरे लिए यही काफी
था।  जब घर आयी तो बेटू 3.5 से 1.5 हो चुका था।  दूध पीने की भी ताकत नहीं थी। मैंने सोचा ही नहीं कि यह
बच्चा  इतना अच्छा लड़का बनेगा। आज मेरे तीनो बच्चों में सबसे ज्यादा लगाव और प्रेम पूरे परिवार से सिर्फ
उसको ही है। मैंने उसको राहुल के कपडे पहनाये ताकि वो थोड़ा बड़ा लगे लेकिन उसकी निर्जीव आंखो में जान कहां  से लाती ? हालांकि दिल को तसल्ली देती थी कि जान है तो जहां है लेकिन उसका चेहरा और कमजोर आंखें मेरे कलेजे के टुकड़े कर देती थी।

गरीबी भी इंसान को कितनी हद तक मजबूर कर देती है इसका पूरा अनुभव मुझे तब हुआ।  मैंने रात दिन जूझकर भी जब राकेश की हालत में कोई विशेष फर्क न देखा तो एक झूठ बोलने का फैसला किया। "डॉक्टर जो आपके डिपार्टमेंट में प्रमुख है वो मेरे नजदीकी रिश्तेदार हैं , आप सिर्फ अपना नंबर दीजिये कल सुबह मैं आपको लापरवाही की सजा दिलवाकर रहूंगी"।

झूठ भी कितना असरदार हो सकता है ये मैंने उस दिन जाना।  मैंने यदि मुंह खोलकर तमिल में बातें की होती तो सब कुछ उलटा होता सो मैंने अंग्रेजी में ही बात की जिसका असर जोरदार रहा।  सारे नर्स और डॉक्टर जल्दी जल्दी भाग दौड़ में देखे जाने लगे।  आपस में बीच-बीच में बातें भी करते रहते थे।  हर एक घंटे के बाद मेरे बेटे को जो कि कोमा में था , हाथ तक न लगाने वाले चेक कर रहे थे।  मेरे मन में डर कहीं गहरे तक समा चुका था और ये मैं दिखाने में भी असमर्थ थी क्योंकि घर पर मेरे पति दो बच्चों का काम निबटाकर मेरे लिए खाना बनाकर लाते थे। उनसे मैं बेटे के स्वास्थ्य की चिंता न करने कहती तो थी लेकिन रात ही रात यदि राकेश न रहा तो कैसे उनको समझा पाउंगी ये भी एक डर था।

जैसे तैसे एक पूरा दिन बीता और मेरे निर्जीव बेटे ने आंखें झपकाईं।  बस जैसे ही मैंने मौक़ा पाया डिस्चार्ज की भी चिंता किये बिना अपने बेटे को लिए डर से भरे दिल को संयमित कर घर की तरफ पांव बढ़ाये। पैसों की कमी ही अधिकांशतः हमें सरकारी अस्पतालों में ले जाती है लेकिन ये जो सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर होते हैं न उनको किसी भी तरह से इंसानों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।  जो भी शाम में उनके अस्पताल में इलाज करवाते थे , वे अच्छी तरह देख भाल देते थे लेकिन जो मेरे जैसे बदनसीब थे , पैसों के मामले में उनको वे ध्यान देने की कोई जरूरत ही नहीं समझते थे फिर कहां हम उनसे इंसानियत की उम्मीद रखें ?

तकरीबन २५ दिनों तक असहाय सी मौत से जूझती रही और आखिरकार मेरे बेटे ने जब अपनी कमजोर आँखों से मुझे देखा तब मेरी पूरे एक महीने बिना सोये डर से उसकी निगरानी करने का प्रतिफल सा मिल गया। हर एक डॉक्टर अपने अस्तित्व का अहसास इतनी नजाकत से करवा रहे थे मानो कि यही उनका अंतिम अवसर हो पैसा कमाने का ! मैंने एक डॉक्टर से हिम्मत जुटाकर कहा , "पहले आप इंसान, फिर एक स्त्रीऔर  मां है उसके बाद ही एक चिकित्सक ,लेकिन मुझे लगता ही नहीं कि आप एक महिला हैं , पैसों के पीछे इस हद तक पागल न बनिए कि लोगों का इंसानियत से ही भरोसा उठ जाए "  मेरी बात कडुवी थी लेकिन शत प्रतिशत सही थी।

जब मैंने अपने कदम बाहर रखे तब कसम खाई ,आइंदा अपने बच्चों को सरकारी अस्पताल में कभी नहीं लाने की।  आज इतने सालों के बाद भी अस्पतालों में मुश्किलों से जूझते गरीबों को मैं हर तरह का मार्गदर्शन देती हूं ताकि कोई अबला मजबूरी में अपने बच्चों को खो न बैठे।



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