आत्मविश्वास की कमी
बचपन में मुझे याद है मैं बेहद डरपोंक और दब्बू थी क्यों पता नहीं लेकिन दूसरों की गलतियों पर मैं ही डांट खाती थी। हिम्मती नहीं थी या दूसरों को बचाने के चक्कर में फंस जाती थी, याद नहीं । एक दिन जब मैं इसी तरह पकड़ी गयी तब हमारे जीवविज्ञान के शिक्षक ने बिना मेरी सुने सजा दी और चले गए। जब मैंने कहा कि मैंने गलती नहीं की तब उन्होंने पूछा ,"क्या मेरी आंखें देखती नहीं मैंने तुम्हे देखा और तुम नकार रही हो हद होती है " शाम को जब वो बाजू वाली कक्षा में आये तब मुझसे कहा , क्षमा मांगने में इतना क्यों हिचकती हो। तब भी मैंने दोहराया कि वाकई गलती मेरी नहीं थी। उन्होंने गुस्से में कक्षा में आकर पूछा कि गलती किसने की और जब पता चला कि उन्होंने जब दस्ती मुझे सजा तो उनसे कुछ कहा नहीं गया क्योंकि गलती उन्होंने की थी शर्मिन्दा भी वो ही थे। जहां बोलना चाहिए यदि वहां भी ओठों पर चुप्पी रहे तो कसूरवार कौन कहा जाएगा ?
बचपन में जब मैं छोटी थी लगभग 40 सालों के पहले ज्यादातर बच्चों की बातों को महत्त्व नहीं दिया जाता था , परिवार भी बड़े थे और पारिवारिक स्थितियां भी सहज नहीं होती थीं , जो भी हो कारण मेरे विचार से उस समय बहुत सारे बच्चे पारिवारिक कारणों से बेहद डरपोंक , दब्बू और हद से ज्यादा सहनशील थे और ये उनकी निजी प्रगति में एक रोड़ा साबित हुए हैं।
हालांकि मैं पढ़ाई में तेज थी और कक्षा में ही पूरी तरह समझे विषय दोबारा पढ़े बिना अच्छे अंक पाने में कोई कठिनाई महसूस नहीं की , कभी मुझसे कोई सवाल किया जाता और जवाब पूछा जाता था तो न जाने मुझे क्या हो जाता था , मेरे घुटनो से नीचे पांवों में जैसे जान ही न हो , थर-थर कांपते थे और जबान भी लडखडाती थी जैसे कि शिक्षक कोई भूत हों , इसका कारण लेकिन कहीं में गहरे तक बसे आत्मविश्वास की कमी थी ये मैंने बहुत देर से जाना और तब मैंने अपनी लगाम अपने हाथों में लेना बेहतर समझा। क्यों हम अपने दिमागी शक्तियों का पूरा इस्तेमाल करने से हिचकते हैं और दूसरों पर आसानी से भरोसा करते हैं , क्या ये हमारी कमजोरी नहीं ? फिर मैंने खुद को एक कमरे में बंद करके खुद अपना ही आत्मविश्वास बढ़ाने लिए जोर से पढ़ना शुरू किया ताकि मेरी आवाज़ की कमियों पर मेरा ध्यान केंद्रित कर सकूं , सचमुच ही लगभग एक महीने के लगातार प्रयास ने मुझमे काफी बदलाव लाये और इसका मुझे गर्व भी है। जब तक कोई इंसान खुद की अच्छाइयां और कमियां न जाने तब तक उसे अपमान और सकुचाहट का सामना करने से कोई भी नहीं रोक सकता।
मेरे विचार से बच्चों को अमीरी में पालो या गरीबी में लेकिन प्यार से हर नाकामयाब चीज भी हासिल की जा सकती है और निःसंदेह इसकी नींव माता पिता ने जरूर ही डालनी चाहिए वरना कइयों को मैंने लड़खड़ाते देखा है और मरते दम तक दुःख से कहते भी सुना है , "हमारे जमाने में हमें कुछ मिला ही नहीं " आत्मविश्वास के बगैर जीता इंसान भी मर जाता है न !!
बचपन में जब मैं छोटी थी लगभग 40 सालों के पहले ज्यादातर बच्चों की बातों को महत्त्व नहीं दिया जाता था , परिवार भी बड़े थे और पारिवारिक स्थितियां भी सहज नहीं होती थीं , जो भी हो कारण मेरे विचार से उस समय बहुत सारे बच्चे पारिवारिक कारणों से बेहद डरपोंक , दब्बू और हद से ज्यादा सहनशील थे और ये उनकी निजी प्रगति में एक रोड़ा साबित हुए हैं।
हालांकि मैं पढ़ाई में तेज थी और कक्षा में ही पूरी तरह समझे विषय दोबारा पढ़े बिना अच्छे अंक पाने में कोई कठिनाई महसूस नहीं की , कभी मुझसे कोई सवाल किया जाता और जवाब पूछा जाता था तो न जाने मुझे क्या हो जाता था , मेरे घुटनो से नीचे पांवों में जैसे जान ही न हो , थर-थर कांपते थे और जबान भी लडखडाती थी जैसे कि शिक्षक कोई भूत हों , इसका कारण लेकिन कहीं में गहरे तक बसे आत्मविश्वास की कमी थी ये मैंने बहुत देर से जाना और तब मैंने अपनी लगाम अपने हाथों में लेना बेहतर समझा। क्यों हम अपने दिमागी शक्तियों का पूरा इस्तेमाल करने से हिचकते हैं और दूसरों पर आसानी से भरोसा करते हैं , क्या ये हमारी कमजोरी नहीं ? फिर मैंने खुद को एक कमरे में बंद करके खुद अपना ही आत्मविश्वास बढ़ाने लिए जोर से पढ़ना शुरू किया ताकि मेरी आवाज़ की कमियों पर मेरा ध्यान केंद्रित कर सकूं , सचमुच ही लगभग एक महीने के लगातार प्रयास ने मुझमे काफी बदलाव लाये और इसका मुझे गर्व भी है। जब तक कोई इंसान खुद की अच्छाइयां और कमियां न जाने तब तक उसे अपमान और सकुचाहट का सामना करने से कोई भी नहीं रोक सकता।
मेरे विचार से बच्चों को अमीरी में पालो या गरीबी में लेकिन प्यार से हर नाकामयाब चीज भी हासिल की जा सकती है और निःसंदेह इसकी नींव माता पिता ने जरूर ही डालनी चाहिए वरना कइयों को मैंने लड़खड़ाते देखा है और मरते दम तक दुःख से कहते भी सुना है , "हमारे जमाने में हमें कुछ मिला ही नहीं " आत्मविश्वास के बगैर जीता इंसान भी मर जाता है न !!
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